120 Bahadur विवाद: कहां से शुरू हुआ तूफान
फरहान अख्तर की आगामी फिल्म “120 Bahadur” का नाम सुनते ही अहीर समाज में मानो आग भड़क गई। गुरुग्राम के खेड़की दौला टोल प्लाज़ा पर हजारों लोग इकट्ठा हुए और हाईवे जाम कर दिया। नारे गूंजे – “120 वीर अहीर!”।
समुदाय का आरोप है कि यह नाम उनकी असली शौर्य गाथा को सही ढंग से पेश नहीं करता। उनका कहना है कि फिल्म में 1897 की सारागढ़ी लड़ाई और 1962 के रेजांग-ला युद्ध जैसे ऐतिहासिक बलिदानों का संदर्भ है, लेकिन अहीर वीरता को उचित सम्मान नहीं दिया गया।
1962 की ठंडी रात: जब 120 बहादुरों ने दुश्मनों की लाखों गोलियों के आगे सीना तान दिया
नवंबर 1962 की ठिठुरती रात… लद्दाख की बर्फ़ीली पहाड़ियों पर खामोशी पसरी थी। ऊँचाई इतनी कि सांस लेना भी मुश्किल, लेकिन वहाँ तैनात थे भारतीय सेना के 120 जवान। यह पोस्ट थी रेजांग-ला, और कमान संभाले हुए थे मेजर शैतान सिंह। सामने खबर थी कि चीनी सेना हज़ारों की तादाद में बढ़ रही है। हथियार, गोलाबारूद, सैनिक—सब कुछ दुश्मन के पास कई गुना ज़्यादा था।
फिर भी उन जवानों की आँखों में डर नहीं था, बस एक ही संकल्प था—“यह धरती आख़िरी सांस तक हमारी है।” जब पहली गोली चली, तो लगा मानो पहाड़ों ने खुद चीख मार दी हो। चीनी सैनिक लहर की तरह टूट पड़े, लेकिन भारतीय जवान दीवार बनकर खड़े रहे। गोलियाँ, बम, ग्रेनेड—हर तरफ़ आग और धुआँ भर गया।
एक-एक करके साथी गिरते गए, किसी का कंधा छलनी हुआ, कोई छाती पर गोली खाकर गिरा, मगर कोई पीछे नहीं हटा। घायल जवान भी ज़मीन पर लेटे-लेटे ट्रिगर दबाते रहे। जब गोलियाँ खत्म हो गईं, तब तलवारें, संगीनें और यहाँ तक कि पत्थर भी हथियार बन गए।
मेजर शैतान सिंह खुद बुरी तरह घायल हो गए थे, लेकिन उन्होंने अंतिम सांस तक अपने सैनिकों का हौसला टूटने नहीं दिया। सुबह जब सूरज उगा, तो बर्फ़ की चादर खून से लाल हो चुकी थी। 120 में से 114 जवान शहीद हो गए थे। उनमें से ज़्यादातर थे अहीर रेजिमेंट के वो वीर, जिन्होंने मौत को गले लगाकर भी तिरंगे को झुकने नहीं दिया।
उस दिन दुश्मन जीतकर भी हार गया, क्योंकि उसने वीरता की ऐसी मिसाल देखी थी जो सदियों तक इतिहास में अमर रहने वाली थी। रेजांग-ला युद्ध सिर्फ़ एक लड़ाई नहीं थी, बल्कि यह सबूत था कि भारतीय सैनिक आख़िरी सांस तक अपने देश के लिए लड़ेगा, चाहे सामने मौत ही क्यों न खड़ी हो।
पंचायतों का गुस्सा और हाईवे जाम
विवाद को देखते हुए 200 गांवों की महापंचायत बुलाई गई। कर्नल चंदूलाल, मेजर टीसी राव, अरुण यादव और कई नेताओं ने मंच से ऐलान किया कि नाम बदलना ही होगा।
पंचायत के बाद समुदाय ने हाईवे पर ट्रैफिक रोक दिया। गाड़ियों की लंबी कतारें लग गईं, पुलिस बल तैनात करना पड़ा, लेकिन अहीर समाज का गुस्सा शांत नहीं हुआ।
लोगों ने साफ चेतावनी दी – अगर 10 दिन में मांगें पूरी नहीं हुईं तो 26 अक्टूबर को दिल्ली की तरफ विशाल रैली निकाली जाएगी।
फिल्म निर्माताओं पर आरोप
अहीर समाज ने फिल्म के निर्देशक रजनीश घई और फरहान अख्तर पर इतिहास के साथ छेड़छाड़ का आरोप लगाया।
समाज की मांग है कि:
- फिल्म रिलीज से पहले शहीदों के परिवार और समाज के प्रबुद्ध लोग इसे देखें।
- रेजांग-ला युद्ध को विकृत रूप में न दिखाया जाए।
- 120 Bahadur से नाम बदलकर “120 वीर अहीर” रखा जाए।
अगर ऐसा नहीं हुआ, तो समाज ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने की चेतावनी दी है।
आगे की लड़ाई: कोर्ट और सड़कों तक संघर्ष
महापंचायतों में तय हुआ कि यह संघर्ष केवल फिल्मों के परदे तक सीमित नहीं रहेगा।
यदि समाज की मांगें नहीं मानी गईं तो:
- सिनेमा घरों का घेराव होगा
- फिल्म का बहिष्कार किया जाएगा
- और दिल्ली तक पैदल मार्च निकलेगा
समाज के लोग कहते हैं कि यह सिर्फ एक फिल्म का विवाद नहीं है, बल्कि वीर शहीदों की शौर्यगाथा की रक्षा की लड़ाई है।
निष्कर्ष: इतिहास को तोड़ने की कीमत
120 Bahadur विवाद ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि जब इतिहास के साथ छेड़छाड़ की जाती है तो समाज चुप नहीं बैठता।
अहीर वीरता केवल एक फिल्म का विषय नहीं, बल्कि एक जीवंत परंपरा है।
अगर फिल्मकार सच को नकारते हैं, तो यह समाज के लिए न केवल शर्मनाक है बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के साथ धोखा भी है।
आज सवाल सिर्फ इतना है – क्या बॉलीवुड इतिहास की सच्चाई को सम्मान देगा, या फिर व्यावसायिक लाभ के लिए वीर शहीदों की गाथा को “मनोरंजन” बना डालेगा?
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