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धराली की चीख़: जब विकास की दौड़ हमें विनाश की ओर ले जाए

धराली, उत्तरकाशी का एक खूबसूरत और ऐतिहासिक गाँव, भागीरथी नदी के किनारे और गंगोत्री से महज़ 6 किलोमीटर पहले बसा है। सेब के बाग़, देवदार के जंगल और प्राचीन मंदिर इसे स्वर्ग-सा बनाते हैं। मगर यह इको-सेंसिटिव ज़ोन है—जहाँ ज़रा-सी छेड़छाड़ भी भूस्खलन और प्रकृति के संतुलन को ख़तरे में डाल सकती है।

1️⃣ धराली में 32 सेकंड की तबाही: सिर्फ़ मलबा बचा

5 अगस्त की सुबह, उत्तराखंड के उत्तरकाशी ज़िले में बसे छोटे से गाँव धराली ने 32 सेकंड में सदियों का संतुलन खो दिया। बादल फटा। मकान, दुकानें, सड़कें, पुल, पेड़ – सब कुछ मलबा बनकर बह गया। कम से कम 5 मौतें, 100 से अधिक लोग लापता, और 150+ लोगों को बचाने के लिए दिन-रात जुटी राहत टीमें – लेकिन सवाल ये है कि क्या इसे रोका जा सकता था?

इस त्रासदी के वीडियो सोशल मीडिया पर आग की तरह फैल चुके हैं। हर कोई पूछ रहा है – “क्या ये प्राकृतिक आपदा थी या इंसानी लालच का नतीजा?”


2️⃣ इतिहास गवाही दे रहा है: क्या हमने कुछ सीखा है?

धराली की बर्बादी कोई इकलौती घटना नहीं। 2013 की केदारनाथ बाढ़, 2021 चमोली ग्लेशियर हादसा, जोशीमठ में ज़मीन धँसाव, और अब धराली – हर साल हिमालय कोई न कोई त्रासदी झेल रहा है। 2023 में 1,800+ भूस्खलन दर्ज हुए, और दर्जनों जानें चली गईं। ये केवल आंकड़े नहीं, ये परिवार हैं जो उजड़ गए।

क्या हमने इन हादसों से कुछ सीखा है? जवाब शायद एक सन्नाटा है।


3️⃣ हिमालय की चीख़ सुनाई दे रही है

धराली भागीरथी इको-सेंसिटिव ज़ोन में है। इसका मतलब है कि यहाँ निर्माण प्रतिबंधित या नियंत्रित होना चाहिए था। लेकिन असलियत यह है कि नदियों के बाढ़ मैदानों पर भी होटल और सड़कें बनाई जा रही हैं।

प्रोफेसर चारु पंत, नैनीताल विश्वविद्यालय की भूविज्ञान विशेषज्ञ, बताती हैं कि हिमालय की ज़मीन पहले से ही कमजोर है। “हर इंच जमीन एक ticking time bomb है,” उनका कहना है। हिमालयी चट्टानों में मौजूद ग्रेनाइट की बनावट इतनी नाज़ुक है कि ज़रा सी बारिश में ज़मीन खिसक जाती है।


4️⃣ विकास बनाम विनाश: जवाबदेही किसकी?

सरकारें कहती हैं – विकास ज़रूरी है। लेकिन सवाल उठता है – कैसा विकास?

12,000 करोड़ की चारधाम सड़क परियोजना, दर्जनों जलविद्युत परियोजनाएं, बिना पर्यावरण आकलन के हो रहे निर्माण… क्या ये विकास है? या खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा?

क्या हमें पहाड़ों को काटकर हाईवे बनाने हैं, या पहाड़ों को बचाने की नीतियाँ बनानी हैं? विकास अगर लोगों की ज़िंदगी ही छीन ले, तो वो कैसा विकास?

5️⃣ जब इंसान ही बन जाए धरती का सबसे बड़ा दुश्मन

इतिहास गवाह है कि प्रकृति ने हमेशा इंसान को जीवन दिया, लेकिन इंसान ने अक्सर इसका जवाब विनाश से दिया। विकास की दौड़ में हमने जंगल काटे, नदियों को बाँधा, पहाड़ों को चीर दिया – मानो यह धरती सिर्फ़ हमारी निजी जागीर हो। सच तो यह है कि इंसान का सबसे बड़ा युद्ध किसी दूसरे इंसान से नहीं, बल्कि खुद प्रकृति से है। हम अपने लोभ और लापरवाही से इस धरती की नसों में जहर घोल रहे हैं।

नदियों का बहाव रोकना, पहाड़ों का सीना छलनी करना और मौसम के संकेतों को नज़रअंदाज़ करना – ये सब वो हथियार हैं जिनसे हम खुद अपने घर को जला रहे हैं। जब हम प्रकृति को जीतने की कोशिश करते हैं, तो असल में हम अपनी ही हार की नींव रख रहे होते हैं। धरती हमें चेतावनी देती है, लेकिन हम सुनने की बजाय शोर मचाने में लगे रहते हैं।


6️⃣ अब क्या करें? समाधान क्या है?

  • नदी तटों पर निर्माण पर तत्काल रोक लगे।
  • हर विकास परियोजना का स्वतंत्र पर्यावरणीय मूल्यांकन हो।
  • स्थानीय समुदायों को योजनाओं में शामिल किया जाए।
  • सिर्फ़ राहत और पुनर्वास नहीं, रोकथाम पर ज़ोर दिया जाए।

धराली की चीख़ें, केदारनाथ के आँसू, जोशीमठ की दरारें – ये सब हमें एक ही बात कह रही हैं:

“हिमालय हमें चेतावनी दे चुका है। अब अगर नहीं जागे, तो अगली तबाही का नाम हम खुद तय करेंगे।”

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